गणपति पूजा में प्रधानमंत्री मोदी की भागीदारी: राजनीतिक बहस और शक्ति संतुलन पर सवाल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष गणेश चतुर्थी के अवसर पर दिल्ली स्थित मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ के आवास पर गणपति पूजा में हिस्सा लिया। इस धार्मिक उत्सव में प्रधानमंत्री की भागीदारी ने राजनीतिक जगत में एक नई बहस को जन्म दिया है। यह आयोजन 11 सितंबर 2024 को हुआ था, जहां प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान गणेश की पूजा अर्चना की और मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ और उनकी पत्नी कल्पना दास के साथ मिलकर धार्मिक कर्मकांड का पालन किया।
प्रधानमंत्री की इस यात्रा ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन पर वाद-विवाद की एक नई लहर शुरू कर दी है। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने इस यात्रा की कड़ी आलोचना की है। उनका कहना है कि इस घटना से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) को भी इस यात्रा की आलोचना करनी चाहिए। उनका मानना है कि ऐसे कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ख़तरे में डाल सकते हैं और कार्यपालिका के प्रभाव के अधीन कर सकते हैं।
विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया
यह मामला जितना धार्मिक है, उतना ही राजनीतिक भी हो गया है। आम आदमी पार्टी (AAP) और अन्य विपक्षी दलों ने भी इस यात्रा की निंदा की है। AAP के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने इस यात्रा पर टिप्पणी करते हुए भाजपा पर आरोप लगाया कि वह धार्मिक आयोजनों का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रही है। संजय सिंह ने कहा कि यह भाजपा की पुरानी रणनीति है कि वह धर्म और राजनीति को मिलाकर चलती है, जिससे उसे राजनीतिक लाभ मिलता है।
भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बीएल संतोष ने प्रधानमंत्री की इस यात्रा का बचाव किया और इसे एक व्यक्तिगत धार्मिक गतिविधि करार दिया। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर पर एक नागरिक के रूप में भाग लिया और इसे राजनीतिक चश्मे से देखना गलत है।
भाजपा का जवाब और आरोप
भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने इस बहस को और गहरा करते हुए कहा कि यह कांग्रेस और उसके सहयोगियों की दोहरे मानदंडों को उजागर करता है। उन्होंने यूपीए के दौर का एक उदाहरण दिया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इफ्तार पार्टी आयोजित की थी और उसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने भी हिस्सा लिया था। मालवीय का कहना था कि जब कांग्रेस के दौर में ऐसे आयोजन हो सकते हैं, तो भाजपा पर इस तरह के आरोप लगाना पूर्णतया अनुचित है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बहस
इस समूची घटना ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहां न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की त्रिपक्षीय प्रणाली है, वहां न्यायपालिका की स्वतंत्रता का महत्व अत्यधिक है। यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का कामकाज पूरी तरह से स्वतंत्र और निष्पक्ष बना रहे। ऐसे में प्रधानमंत्री की इस यात्रा को लेकर उठे सवाल बिलकुल सहज हैं।
पुरानी घटनाओं को देखते हुए, यह साफ़ है कि राजनीतिक घटनाओं में धार्मिक आयोजनों का महत्व बढ़ गया है। यह देखते हुए कि कैसे इन आयोजनों का फायदा उठाया जाता है, यह बहस और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। न्यायपालिका को स्वतंत्रता देने का उद्देश्य यही है कि वह उनके सभी फैसलों में निष्पक्ष रह सके।
इस घटना के बाद से राजनीतिक वातावरण गर्म है और आने वाले दिनों में इस पर और अधिक चर्चा होने की संभावना है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के साथ-साथ राजनीतिक दलों को इस विषय पर दिशा निर्धारित करने की आवश्यकता है ताकि भविष्य में इस तरह के मनमुटाव और विवाद न उत्पन्न हों।
ये सब बहसें तो हमेशा होती रहती हैं, लेकिन असल सवाल ये है कि क्या हम धर्म को राजनीति के शब्दों में ही देखने लगे हैं? गणेश चतुर्थी एक ऐसा त्योहार है जो सारे भारतीयों के दिल में बसता है, चाहे वो किसी भी पार्टी के हों। जब प्रधानमंत्री कोई धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होते हैं, तो वो एक नागरिक के रूप में ही शामिल होते हैं, न कि एक राजनेता के रूप में।
हम अपने आप को इतना राजनीतिक बना लेते हैं कि यहां तक कि एक पूजा भी राजनीति बन जाती है। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि अगर ये बात कांग्रेस के दौर में होती, तो क्या हम इतना बवाल मचाते? जब मनमोहन सिंह इफ्तार पर गए थे, तो किसी ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में बात नहीं की।
हमें अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को थोड़ा शांत करना चाहिए। धर्म और राजनीति के बीच की रेखा को अंधेरे में नहीं, बल्कि समझ से देखना चाहिए। एक इंसान के रूप में उसकी विश्वास की आजादी हमेशा बरकरार रहनी चाहिए।
अगर हम इस तरह की छोटी बातों पर इतना बहस करते रहे, तो वास्तविक समस्याएं-जैसे बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य-किसकी ओर जाएंगी?
ये सब बहसें बहुत ज्यादा हो गई हैं।
प्रधानमंत्री जी ने बस एक पूजा में हिस्सा लिया, ये कोई बड़ी बात नहीं है।
हर कोई अपना दृष्टिकोण लाता है, लेकिन ये तो बस एक धार्मिक अवसर था।
मुझे लगता है कि हमें इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
दोस्तों, ये बहस तो बहुत पुरानी है-जब कोई शक्तिशाली व्यक्ति धार्मिक अवसर पर शामिल होता है, तो लोग तुरंत राजनीति का दावा कर देते हैं।
लेकिन क्या हम भूल गए कि भारत एक ऐसा देश है जहां धर्म हमारी जीवन शैली का हिस्सा है? गणेश जी की पूजा तो हर घर में होती है, चाहे वो बीजेपी के हों या कांग्रेस के।
अगर हम इसे राजनीति का टूल बना दें, तो आगे चलकर अगर कोई न्यायाधीश गुड़िया बनाने जाएं, तो क्या उन पर भी आरोप लगेगा? ये बहसें तो सिर्फ एक धार्मिक आयोजन को नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक एकता को भी तोड़ रही हैं।
मुख्य न्यायाधीश जी ने भी शामिल होकर ये साबित किया कि वो एक नागरिक हैं, न कि किसी पार्टी का टूल। अगर उनकी स्वतंत्रता का सवाल उठ रहा है, तो ये सवाल तब उठना चाहिए जब वो कोई फैसला दे रहे हों, न कि जब वो एक पूजा में शामिल हो रहे हों।
हमें अपनी निर्णय लेने की क्षमता वापस लेनी होगी। ये बहसें हमें उन वास्तविक समस्याओं से दूर कर रही हैं जिन पर हमें ध्यान देना चाहिए।
अगर हम अपने राजनीतिक भावनाओं को थोड़ा शांत कर दें, तो शायद हम अपने देश की वास्तविक समस्याओं को देख पाएंगे।
हमें याद रखना चाहिए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता उसके फैसलों में नहीं, उसके दृष्टिकोण में होती है।
और ये बात तो हर किसी को पता है कि अगर कोई न्यायाधीश अपने फैसलों में पक्षपात करता है, तो उसके खिलाफ आपत्ति तो होगी, लेकिन उसके घर जाने पर नहीं।
हम जो बहस कर रहे हैं, वो तो बहुत छोटी बात है।
हमें बड़े सवालों की ओर बढ़ना चाहिए।
हमें एक ऐसी समाज बनाना है जहां धर्म को नहीं, बल्कि इंसान को बढ़ावा दिया जाए।
इस बहस का एकमात्र उद्देश्य राजनीतिक बातचीत को जीवित रखना है, न कि संविधान की स्वतंत्रता की रक्षा।
यहाँ कोई भी तर्क नहीं है-बस एक विचारधारा का अहंकार है।
गणेश चतुर्थी एक राष्ट्रीय त्योहार है, और इसमें शामिल होना किसी भी नागरिक का अधिकार है।
यदि आपको लगता है कि एक पूजा में शामिल होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है, तो आपको संविधान की बुनियादी समझ नहीं है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है-जब वह एक फैसला देती है, तो उसे राजनीतिक दबाव नहीं होना चाहिए।
यहाँ कोई फैसला नहीं दिया गया, कोई आदेश नहीं दिया गया, कोई नोटिस नहीं जारी किया गया।
बस एक पूजा।
अगर आप इसे राजनीति बना रहे हैं, तो आप अपने अहंकार को राष्ट्रीय विरासत बना रहे हैं।
यह बात तो आपको पता है कि जब कांग्रेस के दौर में इफ्तार हुआ था, तो आप सब चुप थे।
यह दोहरा मानदंड नहीं, तो क्या है?
आप न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन अपने राजनीतिक बाहुल्य को बचाने के लिए उसे बेकार बना रहे हैं।
इस तरह की बहसें देश को नहीं, बल्कि आपके अहंकार को बढ़ाती हैं।
ये सब बहसें तो बस एक बहाना है ताकि हम अपनी नफरत को छुपा सकें।
मैं तो बस देख रहा हूँ कि कैसे हर चीज़ को राजनीति बना दिया जा रहा है।
एक बार तो ये बात हुई कि प्रधानमंत्री जी ने गणेश जी की पूजा की, और अब सब ने शुरू कर दिया-‘न्यायपालिका खतरे में है’, ‘धर्म राजनीति में घुल रहा है’।
मुझे याद है जब मैंने अपने दादा के साथ गणेश जी की पूजा की थी, तो किसी ने राजनीति के बारे में बात नहीं की।
अब हर चीज़ एक लड़ाई बन गई है।
मैं बस ये कहना चाहता हूँ कि अगर आपको लगता है कि एक पूजा से न्यायपालिका बदल जाएगी, तो आपको अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचना चाहिए।
क्या आप अपने घर में भी ऐसा करते हैं? क्या आप अपने परिवार की बातों को भी राजनीति बना देते हैं?
मैं बस रो रहा हूँ।
हम इतने भावुक हो गए हैं कि एक पूजा भी एक बड़ी बहस बन गई है।
लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि इस तरह के आयोजनों से लोगों के बीच जुड़ाव बनता है?
जब प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश एक साथ एक धार्मिक अवसर पर शामिल होते हैं, तो ये एक संकेत है कि देश के नेता एक दूसरे के साथ सम्मान से रहते हैं।
हम इसे राजनीति के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक एकता के रूप में देखना चाहिए।
अगर हम अपने देश को एक साथ रखना चाहते हैं, तो हमें इन छोटी बातों को बड़ा नहीं बनाना चाहिए।
मैं विश्वास करती हूँ कि जब हम एक दूसरे के विश्वास का सम्मान करते हैं, तो हम एक बेहतर देश बनाते हैं।
इसलिए मैं इस घटना को एक सकारात्मक संकेत के रूप में देखती हूँ।
हमें अपने विचारों को बंद नहीं करना चाहिए, लेकिन उन्हें अपने दिल के साथ बाँटना चाहिए।
ये बहसें तो बहुत अच्छी हैं, लेकिन अगर हम इनके बजाय एक दूसरे को समझने की कोशिश करें, तो शायद देश बेहतर हो जाए।
गणेश चतुर्थी तो हर भारतीय के लिए महत्वपूर्ण है।
अगर प्रधानमंत्री जी ने इसमें हिस्सा लिया, तो वो एक नागरिक के रूप में ही किया, न कि एक राजनेता के रूप में।
और अगर मुख्य न्यायाधीश जी ने भी हिस्सा लिया, तो वो भी एक इंसान के रूप में।
हमें ये याद रखना चाहिए कि हर कोई अपने तरीके से धर्म का पालन करता है।
हमें इसे लेकर बहस करने की जगह, इसे स्वीकार करना चाहिए।
हमारे देश में इतने अलग-अलग धर्म, भाषाएँ, संस्कृतियाँ हैं, लेकिन फिर भी हम एक हैं।
इस बात को समझना चाहिए।
मैं उम्मीद करता हूँ कि आने वाले दिनों में हम इस तरह की बहसों के बजाय एक दूसरे के साथ बातचीत करेंगे।
क्योंकि अगर हम एक दूसरे को समझेंगे, तो देश भी बेहतर होगा।
मैंने ये बात तो सुनी ही नहीं थी।
गणेश जी की पूजा हुई, और अब सब ने राजनीति शुरू कर दी।
क्या हम इतने बोर हो गए हैं कि एक धार्मिक अवसर पर भी बहस करनी पड़े?
मैं तो बस ये कहना चाहता हूँ कि अगर आपको लगता है कि ये राजनीति है, तो आप अपने घर में भी ऐसा करते हैं।
मैंने अपने दादा के साथ गणेश जी की पूजा की थी, और किसी ने राजनीति के बारे में बात नहीं की।
अब तो हर चीज़ राजनीति बन गई है।
ये सब बहसें बस एक बहाना है ताकि आप अपनी नफरत को छुपा सकें।
गणेश जी की पूजा करना किसी के लिए भी अपराध नहीं है।
अगर आपको लगता है कि ये राजनीति है, तो आप बस एक अहंकारी हैं।
हर कोई अपने तरीके से धर्म का पालन करता है।
लेकिन आप तो इसे बड़ा बना रहे हैं।
आपको अपनी नफरत को छुपाने के लिए राजनीति का इस्तेमाल करना चाहिए।
ये बहस बेकार है।
मुझे लगता है कि ये सब बहसें ज्यादा हो गई हैं।
गणेश जी की पूजा तो हर घर में होती है।
क्या हम इसे राजनीति बना दें?
मैं तो बस ये कहना चाहती हूँ कि अगर आप इसे बड़ा बनाते हैं, तो आप अपने आप को बड़ा बना रहे हैं।
हमें इसे शांति से देखना चाहिए।
धर्म और राजनीति अलग हैं।
लेकिन आज हम इन्हें मिला रहे हैं।
मुझे डर है कि हम अपने देश को खो देंगे।
ये बहस तो बिल्कुल बकवास है।
गणेश जी की पूजा हुई, और अब सब ने राजनीति का नाटक शुरू कर दिया।
क्या हम इतने बोर हो गए हैं कि एक धार्मिक अवसर पर भी बहस करनी पड़े?
मैं तो बस ये कहना चाहता हूँ कि अगर आपको लगता है कि ये राजनीति है, तो आप अपने घर में भी ऐसा करते हैं।
मैंने अपने दादा के साथ गणेश जी की पूजा की थी, और किसी ने राजनीति के बारे में बात नहीं की।
अब तो हर चीज़ राजनीति बन गई है।
ये बहस बेकार है।
हमें अपने देश की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।
जैसे-बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य।
इन पर बहस करो।
इस पूजा पर नहीं।
हम इतने राजनीतिक हो गए हैं कि एक धार्मिक अवसर भी हमारे लिए एक बहस बन गया है।
लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि गणेश जी की पूजा करना किसी के लिए भी अपराध नहीं है?
हर भारतीय के लिए ये त्योहार महत्वपूर्ण है।
अगर प्रधानमंत्री जी ने इसमें हिस्सा लिया, तो वो एक नागरिक के रूप में ही किया।
और अगर मुख्य न्यायाधीश जी ने भी हिस्सा लिया, तो वो भी एक इंसान के रूप में।
हमें इसे लेकर बहस करने की जगह, इसे स्वीकार करना चाहिए।
हमारे देश में इतने अलग-अलग धर्म, भाषाएँ, संस्कृतियाँ हैं, लेकिन फिर भी हम एक हैं।
इस बात को समझना चाहिए।
हमें अपने विचारों को बंद नहीं करना चाहिए, लेकिन उन्हें अपने दिल के साथ बाँटना चाहिए।
मैं उम्मीद करता हूँ कि आने वाले दिनों में हम इस तरह की बहसों के बजाय एक दूसरे के साथ बातचीत करेंगे।
क्योंकि अगर हम एक दूसरे को समझेंगे, तो देश भी बेहतर होगा।
ये सब बहसें तो बस एक बहाना है ताकि आप अपनी नफरत को छुपा सकें।
गणेश जी की पूजा हुई, और अब सब ने राजनीति का नाटक शुरू कर दिया।
क्या हम इतने बोर हो गए हैं कि एक धार्मिक अवसर पर भी बहस करनी पड़े?
मैं तो बस ये कहना चाहता हूँ कि अगर आपको लगता है कि ये राजनीति है, तो आप अपने घर में भी ऐसा करते हैं।
मैंने अपने दादा के साथ गणेश जी की पूजा की थी, और किसी ने राजनीति के बारे में बात नहीं की।
अब तो हर चीज़ राजनीति बन गई है।
ये बहस बेकार है।
हमें अपने देश की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।
जैसे-बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य।
इन पर बहस करो।
इस पूजा पर नहीं।
मुझे लगता है कि हमें इस बात को समझना चाहिए कि धर्म और राजनीति अलग हैं।
गणेश जी की पूजा तो हर घर में होती है।
अगर प्रधानमंत्री जी ने इसमें हिस्सा लिया, तो वो एक नागरिक के रूप में ही किया।
और अगर मुख्य न्यायाधीश जी ने भी हिस्सा लिया, तो वो भी एक इंसान के रूप में।
हमें इसे लेकर बहस करने की जगह, इसे स्वीकार करना चाहिए।
हमारे देश में इतने अलग-अलग धर्म, भाषाएँ, संस्कृतियाँ हैं, लेकिन फिर भी हम एक हैं।
इस बात को समझना चाहिए।
हमें अपने विचारों को बंद नहीं करना चाहिए, लेकिन उन्हें अपने दिल के साथ बाँटना चाहिए।
मैं उम्मीद करती हूँ कि आने वाले दिनों में हम इस तरह की बहसों के बजाय एक दूसरे के साथ बातचीत करेंगे।
क्योंकि अगर हम एक दूसरे को समझेंगे, तो देश भी बेहतर होगा।
ये सब बहसें बस एक बहाना है ताकि आप अपनी नफरत को छुपा सकें।
गणेश जी की पूजा हुई, और अब सब ने राजनीति का नाटक शुरू कर दिया।
क्या हम इतने बोर हो गए हैं कि एक धार्मिक अवसर पर भी बहस करनी पड़े?
मैं तो बस ये कहना चाहती हूँ कि अगर आपको लगता है कि ये राजनीति है, तो आप अपने घर में भी ऐसा करते हैं।
मैंने अपने दादा के साथ गणेश जी की पूजा की थी, और किसी ने राजनीति के बारे में बात नहीं की।
अब तो हर चीज़ राजनीति बन गई है।
ये बहस बेकार है।
हमें अपने देश की वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।
जैसे-बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य।
इन पर बहस करो।
इस पूजा पर नहीं।
यहाँ कोई तर्क नहीं है, बस एक राजनीतिक अहंकार है।
गणेश चतुर्थी एक राष्ट्रीय त्योहार है, और इसमें शामिल होना किसी भी नागरिक का अधिकार है।
यदि आपको लगता है कि एक पूजा में शामिल होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है, तो आपको संविधान की बुनियादी समझ नहीं है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है-जब वह एक फैसला देती है, तो उसे राजनीतिक दबाव नहीं होना चाहिए।
यहाँ कोई फैसला नहीं दिया गया, कोई आदेश नहीं दिया गया, कोई नोटिस नहीं जारी किया गया।
बस एक पूजा।
अगर आप इसे राजनीति बना रहे हैं, तो आप अपने अहंकार को राष्ट्रीय विरासत बना रहे हैं।
यह बात तो आपको पता है कि जब कांग्रेस के दौर में इफ्तार हुआ था, तो आप सब चुप थे।
यह दोहरा मानदंड नहीं, तो क्या है?
आप न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन अपने राजनीतिक बाहुल्य को बचाने के लिए उसे बेकार बना रहे हैं।
इस तरह की बहसें देश को नहीं, बल्कि आपके अहंकार को बढ़ाती हैं।
धर्म और राजनीति के बीच की रेखा को समझना एक लोकतांत्रिक समाज के लिए आवश्यक है।
गणेश चतुर्थी एक सांस्कृतिक और धार्मिक अवसर है, जिसमें सभी नागरिक शामिल हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री की भागीदारी एक व्यक्तिगत और सांस्कृतिक कृत्य है, न कि राजनीतिक कार्य।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मुद्दा तब उठता है जब न्यायाधीश फैसले देते हैं, न कि जब वे धार्मिक अवसरों में शामिल होते हैं।
इस तरह के आयोजनों को राजनीतिक रूप से देखना एक भ्रम है।
हमें अपने देश की सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करना चाहिए।
यह एक ऐसा देश है जहां धर्म का अर्थ बहुत गहरा है।
इस बहस का उद्देश्य न्याय की स्वतंत्रता को बढ़ावा देना नहीं, बल्कि राजनीतिक विभाजन को बढ़ावा देना है।
हमें इस तरह के अवसरों को एकता के संकेत के रूप में देखना चाहिए।